Friday, April 19, 2019

rishte

जब रिश्तों के पन्नों में से
चाहत की स्याही मिट जाए,
और कोरे कागज़ की मानिंद
कुछ भी न उसमे नज़र आये।

क्या ऐसे रिश्ते की खातिर,
खुद को तडपाना वाजिब है?
क्या ख़ुद अपने ही हाथों से,
ख़ुद को ही मिटाना वाजिब है?

Thursday, January 3, 2013

shunya

है सहमी सी ये ख़ामोशी, बहुत गहरा अँधेरा है।
किसी की बेरुखी ने दूर तक कोहरा बिखेरा  है।

नज़र कुछ भी नहीं आता, समझ भी दूर बैठी है।
मेरे शानों पे मानो मौत का साया घनेरा है।

Tuesday, January 1, 2013

janani

है उनकी कोख शर्मिंदा, दरिंदों की जो जननी हैं।
कलंकित उनका दामन है, दरिंदों की जो जननी हैं।

मुझे अफ़सोस उनपर है, जो यह सब जान कर के भी,
यही कहते हैं इस पर भी  "ये इस औरत की करनी है".

उन्हें अहसास तब होगा, अगर घर खुद का जल जाये,
मगर अफ़सोस, तब भी आँख तो औरत की भरनी है।

उन्हें लटका के फांसी पर, ख़तम होगा नहीं कुछ भी।
जो गन्दी सोच है, वो इस तरह से मर न पायेगी।
दरिन्दे तब भी घूमेंगे, वही वहशत डराएगी।
न होगा चैन और न दूर तक राहत ही आएगी।

किया जो कोख को रुसवा, तो आगे कुछ नहीं होगा।
ना शोषित और ना शोषण,..अरे जीवन न जब होगा।
किसे तुम माँ, किसे बेटी, किसे बहना बुलाओगे।
जो औरत ही नहीं होगी, तो जिन्द भी रूठ जानी है।


यदि चाहत हो राहत की, तो बदलो सोच को अपनी,
अभी भी वक़्त है, संभलो,...संभालो कौम को अपनी।
संभालो आती नस्लों को, उन्हें यह बात कहनी है।
नहीं यह पैर की जूती, ये औरत है ये जननी है।

है पाया इससे ही जीवन, इसी ने खून से सींचा।
इसीने जाग कर रातों की नीदें तुम पे वारी हैं।
तुम्हारी चोट के दर्दों की आहें इसने भरनी हैं।
नहीं यह पैर की जूती, ये औरत है ये जननी है।

ये औरत है, ................................ये जननी है।




Friday, December 28, 2012

jazbaat

मेरे जज़्बात मुझसे जब कभी भी बात करते हैं,
मेरी तन्हाईयों को खुद से ही आबाद करते हैं।

कभी इनकी कदर होती नहीं तो टूट जाते हैं,
जिसे अपना समझते हैं, ये उससे रूठ जाते हैं।

जुबां से बोल तो पाते नहीं लेकिन,
जो कहना चाहते हैं वो नज़र से कह ही जाते हैं।

कोई समझे कि शीशे की तरह नाज़ुक ये होते हैं,
पहुँचती ठेस ग़र है तो बिखर के टूट जाते हैं।

जिन्हें हम अपना हाल-ए-दिल सुनते हैं,
वही अक्सर हमारी आँख को जी भर रुलाते हैं।

उन्हें सब कुछ पता होता है मेरी चोट का लेकिन,
मेरे जज़्बात को वो तब भी अक्सर तोड़ जाते हैं।

मेरे जज़्बात मुझसे जब कभी भी बात करते हैं,
मेरी तन्हाईयों को खुद से ही आबाद करते हैं।

Friday, December 21, 2012

vahshat

कहीं कुछ खो गया,
          कुछ मिट गया,
                 कुछ मर गया है।
किसी को तोड़ कर,
          दम घोंट कर,
                 रुस्वा किया है।
हमारी सोच को यह क्या हुआ है?

किसी की माँ,
           या बेटी,
                  या बहन थी।
कभी हंसती भी थी    
            या ऐसे ही    
                   घर मैं दफ़न थी।
बड़ी तकलीफ में हूँ,
            क्षुब्ध हूँ,
                   नाराज़ हूँ।
हर इक औरत की         
            सिसकी हूँ,
                    भरी आवाज़ हूँ।
ये वहशत,
          बेहयाई  और 
                  दरिंदों का शहर है।
गली, नुक्कड़ पे 
           हर इक मोड़ पर 
                   इनका कहर है।
हमें जीवन मिला    
            जीने का हक 
                    क्यूँ छिन गया है?
भरोसा शब्द 
             पर से ही 
                    भरोसा उठ गया है।
हमारी सोच को यह क्या हुआ है? 
हमारी सोच को यह क्या हुआ है???????????

Tuesday, February 21, 2012

tum

toofaano ke aane se,
kashti jo tute apni,
ik Baans ke tukde pe,
uss paar utar jana....

wo baans ka tukda...
patwaar tumhari hai..
gar haath se na chhute...
to jeet tumhaari hai...

toofan ke aane pe,
kashti ka toot jana...
yeh sabko pata hai par...
isse nikal ke aana...
taqdeer tumhaari hai....

Saturday, February 18, 2012

zakhm

दिए हैं ज़ख्म इस तरह..कि मुझसे दर्द भी रूठा,
ज़बां पे उफ़ भी नहीं है..निगाह सन्न पड़ी है.....

बड़ी कातिल है यह कारीगरी तेरी अरे या रब,
गले को काट कर पूँछा..क्यूँ सांसें बंद पड़ी हैं.....