Friday, December 28, 2012

jazbaat

मेरे जज़्बात मुझसे जब कभी भी बात करते हैं,
मेरी तन्हाईयों को खुद से ही आबाद करते हैं।

कभी इनकी कदर होती नहीं तो टूट जाते हैं,
जिसे अपना समझते हैं, ये उससे रूठ जाते हैं।

जुबां से बोल तो पाते नहीं लेकिन,
जो कहना चाहते हैं वो नज़र से कह ही जाते हैं।

कोई समझे कि शीशे की तरह नाज़ुक ये होते हैं,
पहुँचती ठेस ग़र है तो बिखर के टूट जाते हैं।

जिन्हें हम अपना हाल-ए-दिल सुनते हैं,
वही अक्सर हमारी आँख को जी भर रुलाते हैं।

उन्हें सब कुछ पता होता है मेरी चोट का लेकिन,
मेरे जज़्बात को वो तब भी अक्सर तोड़ जाते हैं।

मेरे जज़्बात मुझसे जब कभी भी बात करते हैं,
मेरी तन्हाईयों को खुद से ही आबाद करते हैं।

Friday, December 21, 2012

vahshat

कहीं कुछ खो गया,
          कुछ मिट गया,
                 कुछ मर गया है।
किसी को तोड़ कर,
          दम घोंट कर,
                 रुस्वा किया है।
हमारी सोच को यह क्या हुआ है?

किसी की माँ,
           या बेटी,
                  या बहन थी।
कभी हंसती भी थी    
            या ऐसे ही    
                   घर मैं दफ़न थी।
बड़ी तकलीफ में हूँ,
            क्षुब्ध हूँ,
                   नाराज़ हूँ।
हर इक औरत की         
            सिसकी हूँ,
                    भरी आवाज़ हूँ।
ये वहशत,
          बेहयाई  और 
                  दरिंदों का शहर है।
गली, नुक्कड़ पे 
           हर इक मोड़ पर 
                   इनका कहर है।
हमें जीवन मिला    
            जीने का हक 
                    क्यूँ छिन गया है?
भरोसा शब्द 
             पर से ही 
                    भरोसा उठ गया है।
हमारी सोच को यह क्या हुआ है? 
हमारी सोच को यह क्या हुआ है???????????