इक घुटन, इक बोझ सा सीने पे है...
हर दफा इक दर्द को पीने से है..
बारहा सोचा की बस अब हद हुई
दर्द की सरहद वहीँ लम्बी हुई
तेरी चाहत में लुटा कर जीस्त को
खुद मिटाया अपने ही वजूद को
अपनी ही नज़रों से गिर कर बार बार
तेरी चाहत का ही कर के ऐतबार
चल पड़े फिर चक दामन सी लिया
फट पड़ा सीना तो इक पल रो लिया
तय किया लंबा सा रस्ता सोच कर
कल नयी सुबहा नया होगा सफ़र
और जब जीना ही बन जाये सज़ा
घोंप दे खंजर जुबां के बेवजह
क्या नफ़ा यूं ज़िन्दगी जीने से है
बेहतरी खुद सांस सी लेने से है
इक घुटन, इक बोझ सा सीने पे है..
इक घुटन, इक बोझ सा सीने पे है......
No comments:
Post a Comment